जरूरी है सुधार
भारत एक लोकतांत्रिक राष्ट्र है। जनता अपने मनपसंद उम्मीदवार को वोट कर उसे जिम्मेवार पद उपलब्ध कराती है ताकि राष्ट्र का संचालन उनकी सोच के मुताबिक चले। जनता अपने नेता को देश एवं समाज सेवा के लिए चुनती है परन्तु दलगत राजनीति में जनप्रतिनिधियों का एक बहुत बड़ा हिस्सा विपक्ष में बैठने पर मजबूर होता है। हालांकि जनता जब वोट करती है तो उसकी यह सोच होती है कि उसका प्रतिनिधि सरकार में भागीदारी निभाये, जो शतप्रतिशत संभल नहीं हो पाता है। फिर तो ऐसी जनता क्या ठगी नहीं जाती है? जिस तरह किसी संस्थान को चलाने के लिए सभी कर्मचारी-पदाधिकारी मिलकर कार्य करते हैं उसी तरह किसी संसद एवं विधानसभा के सभी सदस्यों को सरकार हित में एकमत होकर सोचना चाहिए? सरकार चाहे देश की हो या राज्य की सबसे पहले विपक्ष की भूमिका को खत्म कर देनी चाहिए। ताकि एक पक्ष, एक विचार और एक लड़ाई हो सके और एक सोच बनाकर विजय प्राप्त किया जा सके। जबकि पक्ष एवं विपक्ष की भूमिका में हमारे प्रतिनिधि देशहित एवं जनहित के बारे में न सोचकर सिर्फ निजी एवं पार्टी हित की चिंता में लगे रहते हैं जिससे देश के लोकतांत्रिक व्यवस्था को चोट पहुंचती है। विपक्ष, पक्ष के पांव खींचने में लगी रहती है और आतंकवाद, परमाणु डील या फिर महिलाओं का आरक्षण इत्यादि जैसे मुद्दों पर संसद में चर्चा नहीं हो पाती है एवं संबंधित बिल खटाई में चले जाते हैं। यह बहुत ही संवेदनशील विषय है कि एक चुनाव में देश का अरबों रुपये खर्च हो जाता है मगर ये अरबों रुपये तब मिट्टी में मिल जाते हैं जब सरकार से कोई पार्टी अपने स्वार्थ के कारण समर्थन वापस ले लेती है और सरकार गिर जाती है। जरा सोचिए ऐसे में ठगा कौन गया? केवल जनता।
संजीव कुमार, ब्रह्मपुरा, मुजफ्फरपुर
22 Apr 2009
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